पुरी में शुरू हुआ भगवान् जगन्नाथ की रथयात्रा का उत्थान, हुआ ‘सहस्त्रधारा स्नान यात्रा’
पुरी, ओड़िशा। हर साल ओडिशा के पुरी जगन्नाथ मंदिर में रथ यात्रा धूमधाम से निकाली जाती है। इसकी शुरुआत ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा के दिन ‘सहस्त्रधारा स्नान यात्रा’ से होती है। इस दौरान भगवान जगन्नाथ उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा का विशेष स्नान किया जाता है। साथ ही भव्य यात्रा भी निकाली जाती है। सहस्त्रधारा स्नान एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया मानी जाती है। इस प्रक्रिया में भगवान को 108 घड़ों से स्नान कराया जाता है। यह उत्सव देव स्नान पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है।
इस स्नान के बाद ऐसा माना जाता है कि 14 दिन के लिए भगवान को बुखार आ जाता है। इस दौरान जो नियम मानव शरीर पर लागू होते हैं, वही सारे नियम भगवान पर भी लागू किए जाते हैं। उनका विशेष ख्याल रखा जाता है। तापमान को कम करने के लिए दवाएं भी दी जाती हैं। इतना ही नहीं, औषधियों से बने तेल की मालिश भी की जाती है।
14 दिनों तक किया जाता है भगवान का उपचार
मान्यता है कि स्नान के बाद तीनों देवता अस्वस्थ हो जाते हैं, जिसके कारण वे अनासर में विश्राम करते हैं, जो 14 दिनों तक चलता है। इन दिनों तीनों देवताओं की मूर्ति के दर्शन की अनुमति नहीं होती है। ‘सहस्त्रधारा स्नान’ के बाद मंदिर के गर्भगृह के द्वार बंद रहते हैं। इसे भगवान के विश्राम का समय कहा जाता है।
भगवान को दी जाती है दशमूली दवा
ऐसी मान्यता है की है की पूर्णिमा स्नान में ज्यादा नहाने के कारण भगवान बीमार हो जाते हैं, इसलिए 14 दिनों तक उनका उपचार किया जाता है और कई तरह की औषधियां दी जाती हैं। इतना ही नहीं, बीमारी के दौरान उन्हें सादे भोजन का भोग लगाया जाता है। उन्हें आयुर्वेदिक काढ़े दिए जाते हैं। शाला परणी, बेल, वृहती, सुनररी, फणफणा, तिगोखरा, अंकरांती, लबिंग कोली, अगीबथु, गम्हारी, कृष्ण पारणी को मिलाकर दशमूली दवा तैयार की जाती है।
देव मूर्तियों की पुनर्स्थापना
इसके बाद आषाढ़ कृष्ण दशमी तिथि को मंदिर में चका बीजे नीति रस्म होती है, जो कि भगवान की सेहत में सुधार होने का प्रतीक है। इस रस्म में देव मूर्तियों की पुनर्स्थापना की जाती है और उन्हें चंदन का लेप लगाया जाता है। कहा जाता है कि यह भगवान के नया जीवन प्राप्त करने का समय होता है। वहीं, आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा तिथि को भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा पूर्ण रूप से स्वस्थ हो जाते हैं। इसी दिन मंदिर के कपाट खोले जाते हैं।
नेत्र उत्सव में क्या होता है
कपाट खुलने के बाद भगवान भक्तों को दर्शन देते हैं। इस दिन को नेत्र उत्सव के रूप में मनाया जाता है। नेत्र उत्सव को ‘नबाजौबन’ दर्शन भी कहा जाता है। इस समय भगवान की मूर्तियों को नए नेत्र प्रदान किए जाते हैं और भक्त पहली बार उनके दर्शन करते हैं। नेत्र उत्सव के अगले दिन प्रसिद्ध जगन्नाथ यात्रा शुरू की जाती है, जिसमें तीनों देवताओं को विशाल रथों में विराजित किया जाता है। इन रथों को सैकड़ों भक्त खींचते हैं।
आषाढ़ शुक्ल द्वितीया तिथि को जगन्नाथ रथ यात्रा शुरू होती है। इस साल जगन्नाथ रथ यात्रा 7 जुलाई को शुरू होकर 16 जुलाई को समाप्त होगी। भगवान अपने रथों पर सवार होकर अपनी मौसी के घर गुंडिचा मंदिर जाते हैं।